एक  छोटी सी गुज़ारिश

 

                                           भारतीय तिथी के हिसाब से नववर्ष का प्रारंभ जनवरी माह से नहीं होता किंतु पाश्चात्य संस्कृति के दीवाने हम एक जनवरी को ही नववर्ष की शुरूआत मानते हैं, भारतवासियों का (31st दिसंबर)  माने कि – पुराने साल को बिदा करने का  भी  एक निराला अंदाज हैं, और इसका पालन बड़ी ही लगन से होता है, और इस तरह के चोचले निभाने में लोग काफ़ी बड़प्पन भी  महसूस करते हैं, खैर!

                                          तो मुद्दे की बात यह है कि १ जनवरी २०११ का नववर्ष ( चूंकि  भारतीय होने के नाते एवम् भारतीयों के सानिध्य के प्रभाव वश मै भी इसे नववर्ष ही कहुंगी)  मुझे  नई खुशियां, आंकांक्षाए, नवीन कल्पनाएं तथा एक नन्हा सा प्यारा सा तोहफा देकर गया और इस तोहफे को हमने  सौम्या नाम से नामांकित किया ।

                                         अपितु पालक धर्म बड़ी ही निष्ठा से निभाने का जिम्मा उठाते हुए हमनें ये तय कर लिया था कि सौम्या को उसके जन्मदिवस के अवसर पर  हर साल विशेष अनुभव रूपी उपहार प्रदान किया जाए , और इस बार  हम उसे लेकर पुणे के कोथरूड विभाग स्थित BLIND GIRLS’ SCHOOL जा पहुंचे ।

                                         जाते समय हजारों सवालों के बोझ तले दबा मेरा मन असमंजस का शिकार बन गया था , कश्मकश थी कि कितना मुश्किल हैं अंधत्व का जीवन? उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता,,, तो क्या दिखाई देता होगा ????? मतलब की आंखों के सामने निरंतर , कभी ना खत्म होनेवाली कालिख , क्या वे  जानते हैं कि ये जल्लाद घने काले रंग की होती  है, मगर रंगो की पहचान तो होती हीं नहीं तो फिर…………… इतने में चौकीदार ने जोर से सिटी बजाकर  गाड़ी को दाई ओर लगाने का इशारा दिया……… इस जोर की सिटी ने मुझे *विचारों के प्रलय में डूबने से बचा लिया…………..

                                           शाम का समय था, कुछ अंध लड़कियां  एक दूसरे का हाथ पकड़कर आंगन में खिल खिलाकर हसती हुई गुजर रहीं थीं, क़दमों की गिनती एवम् आसपास से भलीभांति अवगतता  शायद  इनहे मदद करती हो……

                                          यहां के प्राध्यापक ने हमे पूर्ण इमारत दिखाई,  यहां चलाई जानेवाली विभिन्न गतिविधियों (art and craft, occupational  training) के बारे में जानकारी दी, विश्वास करना मुश्किल था, वायर के थैले, जुट के बस्ते, शो के आईटम्स, वॉल हैंगिंग, वार्ली पेंटिंग्स तथा बहोत कुछ,  सोचा ,क्या बात! इतनी सफाई से तो कोई तीक्ष्ण चक्षुओं वाला भी ना बना पाए…………

                                            एक छोटी सी बालिका टेलीफोन के सिरहाने  आस लगाए बैठी थी कि घर से फोन आए,  (यहां सम्पूर्ण महाराष्ट्र से बालिकाएं आती है), भितर  हॉस्टल के रूम में लड़कियां रसोईघर से आनेवाली खुशबू को महसूस कर सब्जी का अंदाज़ा लगा रही थी, और अपनी पसंद नापसंद जता रही थी, इतने में  रसोईघर से बेल बजी, सभी लड़कियां एक दूसरे का हाथ पकड़कर खाने के टेबल पर अा बैठी, अब हम लोग अपने साथ लाई कचौरियां और केक बांटने लगे , उनके थाल को गौर से देखा, ठीक मध्यभाग में गोलाकार कप्पा था  मैं वहां कचौरी रखने लगी फिर पता चला की वो कप्पा पानी का गिलास रखने के लिए है, ताकि, धक्का लगकर पानी  ना गिर जाए। इतने में वहां बच्चों को संभालनेवाली एक आया आई और कहने लगी ,” मैडम, केक उद्या देऊ या का?  नवीन वर्षाचा सकाळी केक खाऊं झालय” मेरे मन में संदेह हुआ ,”काम करनेवाले लोगों का क्या भरोसा?  अपने हाथों से देना ही बेहतर होगा ”  मै अपनी ज़िद पे अडी रहीं ,”आम्हाला आमच्या हातानी वाटायचं आहे” तथा  बांटते वक़्त मैंने उसके सामने प्रश्नों का ढेर लगा दिया

                                           मेरी जिज्ञासा को भांपकर वो बड़ी ही शांति से बताने लगी,” ती बघा ………ती माझी मुलगी, पूर्ण आंधळी, मला जुळे झाले, दोन्हीं आंधळे, सुरुवातीला काही कळत नव्हतं, जेव्हा रांगायला लागले तर भिंतीला धडकायचे, खूप डॉक्टर्स केले पण फायदा नाही, मी मुंबईची आहे पण मुलीसाठी इथे राहुन जॉब करते आहे, माझा मुलगा पण कोरेगांव पार्कच्या अंध शाळे त आहे, नवरा मुंबईला नोकरी करतो , कधितरी जाते भेटायला, आदी खुप रडू यायचं , असं का केलं देवाने???, पण तुम्ही या मुलींना कमी नका समजू, आत्ताच इंटरनॅशनल लेव्हल ला जुडो मध्ये गोल्ड मेडल पटकावला आहे, खूप मेहनती आहेत या सगळ्या, आणि खूप मदत करतात आणि काळजी घेतात एकमेकांची, देवांनी  खूप तेज बुद्धी दिली आहे यांना, आणि इथे यांच्यासोबत राहिल्यावर काही वाटत नाही हो,  यांची देखरेख करण्यातच माझा वेळ जातो, हा जगचं आंधळा आहे, फरक तर तेव्हा जाणवतो जेव्हा आम्ही इथून बाहेर पडतो……….

                                    मै नि:शब्द थी, अपनी अंध संतान के लिए सर्वस्व समर्पित करनेवाली और २०० अंध बालिकाओं के बीच रहकर , उनकी सेवा कर, अंधत्व के अंधकार में जीवन व्यतीत करनेवाली  ये महान माता………… अपने आपको कोसने लगी, खामखां  भले मानस पर शक किया,……………..

                                    बुजूर्गो से सूना है कि ये सब पूर्व जन्म के पापो का भुगतान  हैं, जन्म मरण के चक्कर मे मेरा विश्वास नही लेकिन वो जो बनिया उपर बैठे करमो का लेखा जोखा रखता हैं, उससे बस   एक छोटी सी गुजारिश हैं कि  कर्मो की सजा उसी जन्म में दे दी जाये, सरकारी कामकाज की तरह उसे लंबा ना खीचा जाये , हो सकता है तूरंत शिक्षा का भय मनुष्य को गलत काम करने से रोक दे………..

                                  एक और खयाल आया कि घर की कोई पुरानी वस्तु पड़ी हो तो हम उसे फेकने के बजाय  किसी जरूरतमंद को सुपुर्द कर दुआएं इकट्ठा करना बेहतर समझते हैं, ,तो  जब ऊपरवाले का  न्यौता आए, तो इतने अनमोल अवयवों को ( जिनकी इतने प्यार से देखभाल की है) जला कर भस्म करने के बजाय  अगर जरूरतमंदो में बांट दिए जाए तो मरने के बाद भी बार बार जिंदगी जीने का लुत्फ उठा सकते हैं……… .

                                      इतना कुछ मिला है जिंदगी से, जिसके कई लोग मोहताज है तो उसका लगान देना तो बनता ही है , व *गीता सार भी तो यहीं कहता है……………..

                                *जो लिया यही से लिया

                                 जो दिया यहीं पे दिया*

आख़िर क्यूँ ?????????

              मन में चल रहे इस द्वंद्व को ,

               शब्दों में बयां कर पाना है मुश्किल।

जो घिनौनी घटना घटी है उससे,

तिलमिला उठी है ये आत्मा और

कांप उठा है ये दिल।।

               यू तो डॉक्टर, मां और महिला,

               होने का है मुझे पूरा अहसास।

शायद इसीलिए इस घटना से हैं,

संबंध मेरा गहरा और खास।।

               वैसे तो सदियों से हर युग ने नारी की,

               महानता का है गुणगान गाया ।

फिर भी सीता से लेकर द्रोपदी तक,

निर्भया से लेकर अभया तक,

नीच राक्षसों का पड़ता रहा

 उस पर काला साया।।

                 ना पहने थे उसने छोटे कपड़े,

                 ना ही किया था कोई नशा।

फिर भी भगवन तू बता,

क्यू हुई आखिर उसकी ये दशा।।

                बहोत सोचा पर समझ,

               नहीं आती कोई वजा।

शायद ईमानदारी से काम करने की,

मिली हैं उसे ये सजा!!

                वो सबकी जान बचाती थी पर,

              उसकी जान बचाने कोई न आया।

हे ईश्वर ! सब कुछ देखकर भी,

तुझे जरा सा तरस ना आया।।

             सब कहेंगे तू स्त्री है,

             तू कुछ भी कर सकती हैं।

समय आने पर तू अपने आत्मसम्मान,

के लिए भी लड़ सकती हैं।।

 पर अब बिनती है तुझसे,

तू अब और ना सहना।

                बिनती है जब भी घर से निकलो,

                हाथ में खंजर लेकर ही निकलना 🙏🙏!!!

क्योकि द्रोपदी के बुलाने पर आनेवाले केशव

तो अब पता नहीं कहा रहते हैं???

               पर दुष्ट रावण और दुष्ट दुश्शासन तो

              हर नुक्कड़, हर चौराहे पर मिलते हैं!!!!!!!!

Dr. Rupali Karwa Choudhary, Psychiatrist
Samyak Rehabilitation Center, Pune

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